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आशीष मिश्र | सौजन्‍य:इंडिया टुडे | लखनऊ, 24 अप्रैल 2015 | http://aajtak.intoday.in/story/no-place-for-adiwasi-in-kanhar-project-1-809484.html


यूपी के सोनभद्र में कनहप सिंचाई परियोजना पर चल रहा काम
 

सत्तर साल के बलधारी के लिए उनकी 15 बीघे जमीन ही असली मां है, जिसने बिना पानी के कोख सूख जाने पर भी कुछ कंटीले पेड़-पौधे उगाकर परिवार का पेट भरने का कुछ इंतजाम कर दिया. भीसुर गांव की इसी जमीन पर तिनका-तिनका जोड़कर राम प्रसाद ने झोपड़ी बनाई थी. दो महीने पहले उनके पैरों तले जमीन खिसक गई, जब लेखपाल ने इन्हें जमीन और झोपड़ी समेत बेदखली का आदेश सुना दिया क्योंकि यह गांव जल्द ही एक बड़े जलाशय में तब्दील होने वाला है. मुआवजे की बात शुरू हुई तो पता चला कि बलधारी के पिता को 37 साल पहले ही मुआवजा मिल चुका है. बलधारी और उनके तीनों बेटे अब सरकार से सात-सात लाख रु. लेकर दूसरी जगह बसने को तैयार नहीं हैं. वे कहते हैं, ''सरकार प्लॉट दे रही है, लेकिन बिना जमीन मेरा परिवार भूखों मर जाएगा.''

भीसुर से सटे गांव सुंदरी में रहने वाले 60 वर्षीय राम प्रसाद को अपनी दो जवान बेटियां ब्याहनी हैं. पूंजी के नाम पर केवल 20 बीघा पथरीली जमीन है. सरकारी कारिंदों ने उन्हें भी बेदखली का फरमान सुना दिया है. यह गांव भी डूबने वाला है. राम प्रसाद के हाथ में मुआवजे की पहली किश्त के रूप में फिलहाल दो लाख रु. हैं. जमीन पर उनका कोई हक नहीं क्योंकि इसका मुआवजा उनके पिता को तब मिला था, जब वे 22 साल के थे.

यूपी के सोनभद्र जिले में 39 सालों से लंबित पड़ी कनहर सिंचाई परियोजना अब अचानक बलधारी जैसे हजारों आदिवासियों के लिए मौत का फरमान लेकर आई है, जिसके खिलाफ आंदोलन भी शुरू हो गया है. 14 अप्रैल को आदिवासियों और पुलिस के बीच हिंसक झड़प भी हुई, जिसमें एक दर्जन से ज्यादा लोग घायल हो गए.

सोनभद्र के जिला मुख्यालय रॉबर्ट्सगंज से सवा सौ किमी दक्षिण में अंग्रेजों का बसाया हुआ और जंगलों से घिरा दुद्घी कस्बा है. यह जिले की सबसे बड़ी तहसील और ब्लॉक मुख्यालय भी है. यह नक्सल प्रभावित इलाका मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार के साथ सीमा बनाता है. इसके पूर्व में कनहर नदी है. दुद्घी से 11 किमी दूर पूर्व में अमवार गांव में कनहर और उसकी सहायक नदी पांगन के संगम पर तीन राज्यों से जुड़ी यूपी की सबसे बड़ी अंतरराज्यीय ''कनहर सिंचाई परियोजना'' आकार ले रही है. दुद्घी के सुंदरी, भीसुर, कोरची, गोहड़ा, लांबी, सुगवाभान, अमवार (आंशिक) और सुंदरी समेत कुल 11 आदिवासी गांव इस परियोजना में डूब जाएंगे. यहां रहने वाले गोंड, खरवार, भुइयां, चेरू, पनिका आदिवासी जातियों से जुड़े लोग विस्थापन का दंश झेलेंगे. इसके अलावा छत्तीसगढ़ और झारखंड के 4-4 गांवों का अस्तित्व भी मिट जाएगा.

देरी से टूट रहा सब्र

कनहर सिंचाई परियोजना का उद्घाटन 6 अक्तूबर, 1976 को तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने किया था. केंद्रीय जल आयोग से अनुमति मिलने के बाद इसकी प्रारंभिक लागत 27 करोड़ रु. आंकी गई थी. 1977 में सरकार ने परियोजना निर्माण के लिए धनराशि स्वीकृत कर प्रभावित आदिवासियों के परिवारों का सर्वे शुरू किया. जनवरी, 1979 में परियोजना की प्रस्तावित राशि बढ़ाकर 55 करोड़ रु. कर दी गई. सिंचाई विभाग ने इसे 1982 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा. ग्रामीणों को 2200 रु. प्रति एकड़ की दर से मुआवजा बांटा गया. यहां आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे शिवप्रसाद खरवार कहते हैं, ''शुरुआत में जमीन के बदले जमीन का भी वादा किया गया था, लेकिन किसी को कुछ नहीं मिला.'' इसी बीच तत्कालीन बिहार और मध्य प्रदेश सरकार से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेने में आई तकनीकी बाधा के कारण काम में सुस्ती आ गई. सुंदरी गांव के दुर्गा प्रसाद बताते हैं, ''1977 से 79 के बीच सर्वे कर लोगों को उनकी जमीन का मुआवजा दिया गया लेकिन सिंचाई विभाग ने नामांतरण की कार्रवाई नहीं की. ऐसे में लोग अपनी जमीनों पर काबिज रहे. और इन्हीं के आधार पर किसान क्रेडिट कार्ड बने हैं.''

38 सालों से यहां कोई काम नहीं हुआ. आदिवासी परिवारों की दूसरी-तीसरी पीढ़ियां आ गई हैं. अब अचानक ये परिवार जमीन छोड़ने को तैयार नहीं हैं.

स्थानीय प्रशासन 1979 की सर्वे रिपोर्ट के आधार पर चिन्हित परिवारों को 7 लाख, 11 हजार रु. बतौर विस्थापन पैकेज दे रहा है. इसमें 2 लाख, 11 हजार पहली किश्त के रूप में हैं. प्रशासन द्वारा दिए जा रहे प्लॉट पर शिफ्ट होने पर बाकी राशि भी मिल जाएगी.

नई नीति के तहत हो विस्थापन

1977 में हुए सर्वे में कुल 1810 परिवारों को ही मुआवजा मिला था. इसके बाद से इन गांवों की आबादी कई गुना बढ़ चुकी है. इसी दौरान 2002 में परियोजना को झारखंड से अनुमति मिली. 2007 में दुद्घी विधानसभा से बीएसपी के टिकट पर जीते सेवानिवृत्त पुलिस उपमहानिरीक्षक चंद्रमणि प्रसाद के प्रयास से 2010 में इसे छत्तीसगढ़ से भी अनुमति मिल गई. फिर जनवरी, 2010 में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पुनः परियोजना का शिलान्यास किया और इस वक्त इसकी लागत साढ़े आठ सौ करोड़ रु. आंकी गई. 2012 में सत्ता में आई सपा सरकार ने भी इस प्रोजेक्ट पर ध्यान दिया. कुछ संशोधनों के बाद नई स्थिति में परियोजना की लागत 2252.59 करोड़ रु. तय हुई. शिवप्रसाद खरवार कहते हैं, ''परियोजना की लागत तो 30 गुना बढ़ गई, लेकिन आदिवासियों के हिस्से कुछ नहीं आया. सरकार को 2013 की भूमि अधिग्रहण नीति के तहत जमीन मूल्य का चार गुना देना चाहिए.''

सोनभद्र के जिलाधिकारी संजय कुमार कहते हैं, ''अगर कोई प्रोजेक्ट 40 सालों से चल रहा है तो यह तार्किक नहीं है कि मुआवजा ले चुके लोगों को उसी जमीन का दोबारा मुआवजा दिया जाए. हम तीन पीढिय़ों को मुआवजा दे रहे हैं, जो अब तक कभी नहीं हुआ. जो लोग छूट गए हैं, उनके लिए भी नया सर्वे करा रहे हैं.'' हालांकि इस इलाके में आदिवासियों को संरक्षित वन कानून के तहत जंगलों पर उनके अधिकार से भी वंचित रखा गया है.

पर्यावरण को लेकर सवाल

इस परियोजना में ''इन्वायरमेंट इंपैक्ट एसेसमेंट (ईआइए) नोटिफिकेशन'' के उल्लंघन पर भी सवाल उठ रहे हैं. कार्यकारी इंजीनियरविजय कुमार श्रीवास्तव कहते हैं, ''38 साल पहले काम शुरू हुआ था. बांध का काफी हिस्सा बन चुका था. ऐसे में इसमें पर्यावरण मुद्दों के उल्लंघन का मामला नहीं बनता.'' विस्थापन के विरोध में लड़ाई लड़ रहे एक वकील बताते है कि कनहर सिंचाई परियोजना के निर्माण में संबंधित ग्राम सभाओं को विश्वास में नहीं लिया गया है. पूर्व बीएसपी विधायक चंद्रमणि प्रसाद कहते हैं, ''सोनभद्र के विकास के लिए कनहर सिंचाई परियोजना जरूरी है. जिला प्रशासन को आदिवासियों का विश्वास जीतना चाहिए.'' जिलाधिकारी संजय कुमार कहते हैं, ''हम विस्थापितों को ऐसी सुविधाएं देंगे, जो देश में अभी तक किसी को भी नहीं मिली होंगी.'' विस्थापित होने वाले आदिवासियों को भले ही कई सरकारी सुविधाएं मिलेंगी, लेकिन उन्हें अपना मकान खुद ही बनाना होगा. रोजी-रोटी का जरिया भी तय नहीं.

बहरहाल असंतुलित विकास और नक्सलवाद का साक्षी सोनभद्र एक बार फिर विस्थापन की मार से दो-चार है. स्वयंसेवी संगठन और सरकार, दोनों अपने हित साध रहे हैं. इस पूरी लड़ाई में सबसे हाशिए पर वह आदिवासी है, जिसका घर, जमीन और रोटी छिन गई.

 


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